TO PARENTS A. Encourage your child (Colossians 3:21) Don’t let them feel discouraged, sullen, inferior, or frustrated. Give gifts (Luke 11:11-13), Forgive, don’t dig the past (Luke 15:22) B. Discipline him/her while he is young (Proverbs 19:18; Hebrews 12:10) C. Nurture him/her in the Lord (Ephesians 6:4) 1. In the training (Proverbs 22:6, Catechize, 2Timothy 3:15) 2. Discipline (Proverbs 13:24; 22:15; 19:18; 23:13,14; 29:15,17) 3. Counsel 4. Admonition D. Do not Irritate your child (Colossians 3:21; Ephesians 6:4) 1. Do not provoke to anger 2. Do not exasperate him/her to resentment 3. Do not fret 4. Do not be hard on them or harass them 5. Do not break their spirit E. Provide for one’s home (1Timothy 5:8; Proverbs 31:21,22,24,27). TO CHILDREN A. Obey your parents in all things. Make it a lifestyle to obey. For this is well pleasing unto the Lord (Colossians 3:20). B. Obey your parents in the Lord. (Ephesians 6:1). For this is right. C. Honor them (Ephesians 6:2,3). That it may be well with you, and that you may live long. D. Serve them (1Timothy 5:4). The wrath of God descends on the disobedient (Romans 1:30,32) TO MARRIED COUPLES A. In Union (Together) (Genesis 2:24; Matthew 19:4-6; 1Corinthians 7:5,10) 1. Mutual Love (1Corinthians 7:3, Conjugal rights, goodwill, kindness, etc) 2. Mutual Self-Giving/Submit to Authority of Other (1Corinthians 7:4) 3. Mutual Consent (1Corinthians 7:5. In submission to the Lord. Not like Ananias and Sapphira as in Acts 5, but like the Shunammite couple in 2Kings 4:9) B. Duties of Husbands 1. Be the Head of your wife (Ephesians 5:23; 1Corinthians 11:3. Leadership, decision-making) 2. Make Christ your Head (1Corinthians 11:3) 3. Follow Christ’s Example (Christ’s love for the Church) a. Love (Ephesians 5:25,28,33; Colossians 3:19) b. Nourish, protect, and cherish her (Ephesians 5:29) c. Honor her with great respect (1Peter 3:7) C. Duties of Wives 1. Be Body/helpmeet for him (Genesis 2:20) Accept his headship/rulership (Genesis 3:16; Ephesians 5:22) Be bound to him till he dies (Romans 7:2) 2. Desire for him alone (Genesis 3:16) 3. Learn from husband (1Corinthians 14:35) 4. Be subject to husband as to the Lord (Ephesians 5:22,24) a. Submission in obedience (Titus 2:5; 1Peter 3:1) b. Adaptation 5. Revere husband (Ephesians 5:33) a. Notice him (pay attention, have concern) b. Regard him c. Honor him d. Prefer him e. Venerate, esteem him (think highly of, value greatly) f. Defer to him (submission) g. Praise him h. Love and admire him exceedingly 6. Be sober, wise (Titus 2:4; Proverbs 31:26,30) 7. Be trustworthy (Proverbs 31:11,12) 8. Be self-controlled (Titus 2:5) 9. Be chaste (Titus 2:5; Proverbs 31:10,25,11; 1Peter 3:2) 10. Be homemakers (Proverbs 31:28,29, 15,16,18,21) 11. Be good natured, kindhearted (Proverbs 31:12) 12. Be hardworking (Proverbs 31:12-30). Not be idle (1Timothy 5:13) 13. Be meek and quiet (1Peter 3:4-6). Not nagging (Proverbs 21:19, 9; 19:13; 27:15) TO FELLOW CHRISTIANS 1. Prayer (Colossians 4:12; Acts 12:5; James 5:15) 2. Love (Romans 12:10) 3. Honor (Romans 12:10) 4. Help, Assistance, Aid (Romans 12:13; 1Corinthians 16:1; Galatians 6:6) 5. Hospitality (Romans 12:13; 1Timothy 3:2) 6. Sympathy (Romans 12:15; Galatians 6:2; Romans 15:1-7) 7. Humility (Romans 12:16) 8. Goodness (Romans 12:17) 9. Honest (Romans 12:17; 1Corinthians 8:21; Truthfulness, Ephesians 4:25,15) 10. Edifying words (Ephesians 4:29) 11. Restoration (Galatians 6:1,2) 12. Exhortation (2Timothy 4:2) 13. Mutual Subjection (1Peter 5:5) 14. Forbearing (Colossians 3:13) 15. Forgiving (Colossians 3:13) TO SERVANTS 1. Honor master, boss. (1Timothy 6:1,2) 2. Obey (Ephesians 6:5, 6-8; Colossians 3:23-25) a. With fear b. Single-heartedly c. As unto Christ d. Not as men-pleasers e. But as Christ’s servants f. Doing God’s will 3. Don’t answer back (Titus 2:9) 4. Faithful (Titus 2:10) 5. Subjection (1Peter 2:18-20) TO MASTERS (BOSSES) 1. Do not threaten (Ephesians 6:9) Don’t be violent. Don’t use abusive words 2. Be just and fair (Colossians 4:1) Do not exploit. Give the right wages. Be merciful. Treat them with respect. TOWARDS THE WORLD IN GENERAL 1. Intercede for them (1Timothy 2:1-4; Isaiah 12:23) 2. Honor (1Peter 2:17) 3. Be honest (Romans 12:17) 4. Speak edifying words (Ephesians 4:29) 5. Witness (1Thessalonians 2:4; 1Peter 3:1-5; Philippians 1:13; Matthew 5:14; Philippians 2:15) 6. Follow the Golden rule (Matthew 7:12) 7. Keep no debts but love (Romans 13:7-8) TOWARDS AUTHORITIES 1. Honor them (Romans 13:7) 2. Be subject to them (Romans 13:1; 1Peter 2:13-16) 3. Pray/Intercede for them (1Timothy 2:2-4) ______x______ | मसीही आचार संहिता परिवार में माता-पिता के लिए निर्देश 1. अपने बच्चे को प्रोत्साहित करें हे बच्चेवालों, अपने बालकों को तंग न करो, न हो कि उन का साहस टूट जाए। (कुलु 3:21) उनके साहस को न तोडें। उन्हें उदास, हताश, चिडचिडा, छोटा, नीचा, या घटिया मेहसूस होने न दें। उन्हें अच्छी अच्छी वस्तुऐं दें, जैसा हमारा पिता परमेश्वर भी हमें प्रेम से सारी वस्तुऐं देता है। (लूका 11:11-13) 2. जब बच्चे जवान है तभी उन्हें अनुशासन सिखादें । जबतक आशा है तो अपने पुत्र को ताड़ना कर, जान बूझकर उसका मार न डाल। (नीति 19:18)। अनुशासन की शिक्षा देना प्रेम की ही निशानी है। ( इब्रा 12: 6:10) 3. प्रभु की शिक्षा, और चितावनी देते हुए, उन का पालन- पोषण करो। और हे बच्चेवालों अपने बच्चों को रिस न दिलाओ परन्तु प्रभु की शिक्षा, और चितावनी देते हुए, उन का पालन- पोषण करो।। (इफि 6:4) - उन्हें शिक्षा दें लड़के को शिक्षा उसी मार्ग की दे जिस में उसको चलना चाहिये, और वह बुढ़ापे में भी उस से न हटेगा। (नीति 22:6) और बालकपन से पवित्र शास्त्रा तेरा जाना हुआ है, जो तुझे मसीह पर विश्वास करने से उद्धार प्राप्त करने के लिये बुद्धिमान बना सकता है। (2तिम 3:15) - उन्हें अनुशासन में रखें जो बेटे पर छड़ी नहीं चलाता वह उसका बैरी है, परन्तु जो उस से प्रेम रखता, वह यत्न से उसको शिक्षा देता है। (नीति 13:24) लड़के के मन में मूढ़त बन्धी रहती है, परन्तु छड़ी की ताड़ना के द्वारा वह उस से दूर की जाती है। (नीति 22:15) लड़के की ताड़ना न छोड़ना; क्योंकि यदि तू उसका छड़ी से मारे, तो वह न मरेगा। तू उसका छड़ी से मारकर उसका प्राण अधोलोक से बचाएगा। (नीति 23:13) छड़ी और डांट से बुद्धि प्राप्त होती है, परन्तु जो लड़का योंही छोड़ा जाता है वह अपनी माता की लज्जा का कारण होता है। (नीति 29:15) अपने घर का अच्छा प्रबन्ध करता हो, और लड़के- बालों को सारी गम्भीरता से आधीन रखता हो। (जब कोई अपने घर ही का प्रबन्ध करना न जानता हो, तो परमेश्वर की कलीसिया की रखवाली क्योंकर करेगा)। (1तिम 3:4-5) 4. बच्चों को तंग न करें, उन्हे रिस न दिलाये, न उनके साहस को तोडें (कुलु 3:21, इफि 6:4) 5. अपने घर के लिए प्रबंध करें पर यदि कोई अपनों की और निज करके अपने घराने की चिन्ता न करे, तो वह विश्वास से मुकर गया है, और अविश्वासी से भी बुरा बन गया है। (1तिम 5:8) वह अपने घराने के चालचलन को ध्यान से देखती है, और अपनी रोटी बिना परिश्रम नहीं खाती। (नीति 31:27) बच्चों के लिए निर्देश 1. सब बातों में अपने अपने माता- पिता की आज्ञा का पालन करो, क्योंकि प्रभु इस से प्रसन्न होता है।(कुलु 3:20) 2. प्रभु में अपने माता पिता के आज्ञाकारी बनो, क्योंकि यह उचित है।(कुलु 6:1) 3. अपनी माता और पिता का आदर करें ताकि तुमहारा भला हो, और तुम धरती पर बहुत दिन जीवित रहों। (इफि 6:2-3) 4. उनकी सेवा करें। अपने माता- पिता आदि को उन का हक देना सीखें, क्योंकि यह परमेश्वर को भाता है। (1तिम 5:4) माता पिता की आज्ञा न माननेवालों पर परमेश्वर का कोप उतरता है (रोम 1:30,32) विवाहित दम्पतियों के लिए निर्देश 1. दोनों एक तन के समान एक रहें। इस कारण पुरूष अपने माता पिता को छोड़कर अपनी पत्नी से मिला रहेगा और वे एक तन बनें रहेंगे। (उत्प 2:24)। इसका यह मतलब भी है कि माता पिता या सांस ससुर दम्पति की एकता में हस्तक्षेप न करें। 2. वे एक दूसरे से अलग न हो। विवाह के वाचा के प्रति विश्वासयोग्य रहें। तुम में से कोई अपनेी जवानी की स्त्री से विश्वासघात न करे। क्योंकि इस्राएल का परमेश्वर यहोवा यह कहता है, कि मैं स्त्री- त्याग से घृणा करता हूं (मलाकी 2:15, 16) सो व अब दो नहीं, परन्तु एक तन हैं: इसलिये जिसे परमेश्वर ने जोड़ा है, उसे मनुष्य अलग न करे। तुम एक दूसरे से अलग न रहो; परन्तु केवल कुछ समय तक आपस की सम्मति से कि प्रार्थना के लिये अवकाश मिले, और फिर एक साथ रहो, ऐसा न हो, कि तुम्हारे असंयम के कारण शैतान तुम्हें परखे। (1कुरु 7:5) 3. वे एक दूसरे का हक पूरा करें। पति अपनी पत्नी का हक्क पूरा करे; और वैसे ही पत्नी भी अपने पति का। (1कुरु 7:3) 4. वे एक दूसरे के आधीन रहें। पत्नी को अपनी देह पर अधिकार नहीं पर उसके पति का अधिकार है; वैसे ही पति को भी अपनी देह पर अधिकार नहीं, परन्तु पत्नी को। (1कुरु 7:4) और मसीह के भय से एक दूसरे के आधीन रहो।। (इफि 5:21) 5. वे आपसी सम्मति से और परमेश्वर की इच्छा की समझ के साथ सब कुछ करें। (1कुरु 7:5) 6. विवाह के सम्बन्ध को पवित्र बनाए रखें। विवाह सब में आदर की बात समझी जाए, और बिछौना निष्कलंक रहे; क्योंकि परमेश्वर व्यभिचारियों, और परस्त्रीगामियों का न्याय करेगा। (इब्रा 13: 4) पतियों के लिए निर्देश 1. अपनी पत्नी का सिर अथवा मुखिया और स्वामी वह हो। पति पत्नी का सिर है जैसे कि मसीह कलीसिया का सिर है (इफि 5:23) जैसे सारा इब्राहीम की आज्ञा में रहती और उसे स्वामी कहती थी (1पत 3:6) 2. मसीह को अपना सिर अथवा मुखिया और स्वामी जानें। हर एक पुरूष का सिर मसीह है: और स्त्री का सिर पुरूष है: और मसीह का सिर परमेश्वर है। (1कुरु 11:3) 3. जिस प्रकार मसीह कलीसिया से प्रेम करता है वैसे ही पति भी अपनी पत्नी से प्रेम करें। हे पतियों, अपनी अपनी पत्नी से प्रेम रखो, जैसा मसीह ने भी कलीसिया से प्रेम करके अपने आप को उसके लिये दे दिया। (इफि 5 :25) इसी प्रकार उचित है, कि पति अपनी अपनी पत्नी से प्रेम रखता है, वह अपने आप से प्रेम रखता है। क्योंकि किसी ने कभी अपने शरीर से बैर नहीं रखा बरन उसका पालन- पोषण करता है, जैसा मसीह भी कलीसिया के साथ करता है इसलिये कि हम उस की देह के अंग हैं। (इफि 5 :28-30) हे पतियो, अपनी अपनी पत्नी से प्रेम रखो, और उन से कठोरता न करो। (कुलु 3:19) 4. अपनी पत्नी का आदर करें। हे पतियों, तुम भी बुद्धिमानी से पत्नियों के साथ जीवन निर्वाह करो और स्त्री को निर्बल पात्रा जानकर उसका आदर करो, यह समझकर कि हम दोनों जीवन के वरदान के वारिस हैं, जिस से तुम्हारी प्रार्थनाएं रूक न जाएं।। (1 पत 3:7) पत्नियों के लिए निर्देश 1. अपने पति के लिए एक ऐसा सहायक बनें जो उस से मेल खाए। (उत्प 2:18) 2. अपने पति के ऐसे आधीन रहें जैसे प्रभु के। (इफि 5:22) पर जैसे कलीसिया मसीह के आधीन है, वैसे ही पत्नियां भी हर बात में अपने अपने पति के आधीन रहें। (इफि 5:24) 3. अपने पति के जीते जी उस से बन्धी रहें। क्योंकि विवाहिता स्त्री व्यवस्था के अनुसार अपने पति के जीते जी उस से बन्धी है। (रोम 7:2) यदि पति के जीते जी वह किसी दूसरे पुरूष की हो जाए, तो व्यभिचारिणी कहलाएगी (रोम 7 :3) 4. संयमी हो। (तीतुस 2:5) 5. वह पतिव्रता हो। (तीतुस 2:5) 6. वह घर का कारबार करनेवाली हो। (तीतुस 2:5) 7. वह भली स्वभाव की हो। वह अपने जीवन के सारे दिनों में उस से बुरा नहीं, वरन भला ही व्यवहार करती है। (नीति 31:12) और संयमी, पतिव्रता, घर का कारबार करनेवाली, भली और अपने अपने पति के आधीन रहनेवाली हों, ताकि परमेश्वर के वचन की निन्दा न होने पाए। (तीतुस 2:5) इसलिये कि यदि इन में से कोई ऐसे हो जो वचन को न मानते हों, तौभी तुम्हारे भय सहित पवित्र चालचलन को देखकर बिना वचन के अपनी अपनी पत्नी के चालचलन के द्वारा खिंच जाएं। (1पत 3:2) 8. बुद्धिमान हो। हर बुद्धिमान स्त्री अपने घर को बनाती है, पर मूढ़ स्त्री उसको अपने ही हाथों से ढा देती है। (नीति 14:1) वह बुद्धि की बात बोलती है, और उसके वचन कृपा की शिक्षा के अनुसार होते हैं। (नीति 31:26) 9 . पति का भय मानने वाली हो। पत्नी भी अपने पति का भय माने। (इफि 5:33) 10. अपने पतियों और बच्चों से प्रीति रखें। (तीतुस 2:4) 11. अपने पति की ओर ही लालसा हो। (उत्प 3:16) 12. अपने पति से सीखें । यदि वे कुछ सीखना चाहें, तो घर में अपने अपने पति से पूछें (1कुरु 14:35) 13 . परिश्रमी हो (नीति 31:12-30)। - घर घर फिरकर आलसी रहने वाली न हो। ऐसे मूढ़ स्त्रियों के समान न हो जो- घर घर फिरकर आलसी होना सीखती है, और केवल आलसी नहीं, पर बकबक करती रहती और औरों के काम में हाथ भी डालती हैं और अनुचित बातें बोलती हैं। (1तिम 5:13) 14. शान्त स्वभाव के हो। बरन तुम्हारा छिपा हुआ और गुप्त मनुष्यत्व, नम्रता और मन की दीनता की अविनाशी सजावट से सुसज्जित रहे, क्योंकि परमेश्वर की दृष्टि में इसका मूल्य बड़ा है। (1पत 3:4) झगड़ालू और चिढ़नेवाली पत्नी के संग रहने से जंगल में रहना उत्तम है। (नीति 21:19) स्त्री को चुपचाप पूरी आधीनता में सीखना चाहिए। (1तिम 2:11) 15. दिखावटी सिंगार करने वाली न हो। और तुम्हारा सिंगार, दिखावटी न हो, अर्थात् बाल गूंथने, और सोने के गहने, या भांति भांति के कपड़े पहिनना। (1पत 3:3) वैसे ही स्त्रियां भी संकोच और संयम के साथ सुहावने वस्त्रों से अपने आप को संवारे; न कि बाल गूंथने, और सोने, और मोतियों, और बहुमोल कपड़ों से, पर भले कामों से। क्योंकि परमेश्वर की भक्ति ग्रहण करनेवाली स्त्रियों को यही उचित भी है। (1तिम 2:9-10) 16 . घर में किसको स्वागत करना और किसको नही, इस बात का समझ रखने वाली हो। यह इसलिए क्योंकि संसार में कई ऐसे झुठे शिक्षक और अपने आप को परमेश्वर के सेवक बताने वाले भेडियां है जो कलीसिया को तोडने के लिए घर घर को भडकानें की कोशीश करते है। इन्हीं में से वे लोग हैं, जो घरों में दबे पांव घुस आते हैं और छिछौरी स्त्रियों को वश में कर लेते हैं, जो पापों से दबी और हर प्रकार की अभिलाषाओं के वश में हैं। और सदा सीखती तो रहती हैं पर सत्य की पहिचान तक कभी नहीं पहुंचतीं। और जैसे यन्नेस और यम्ब्रेस ने मूसा का विरोध किया था वैसे ही ये भी सत्य का विरोध करते हैं: ये तो ऐसे मनुष्य हैं, जिन की बुद्धि भ्रष्ट हो गई है और वे विश्वास के विषय में निकम्मे हैं। (2ि तम 3:6-9) यदि कोई तुम्हारे पास आए, और यही शिक्षा न दे, उसे न तो घर मे आने दो, और न नमस्कार करो। क्योंकि जो कोई ऐसे जन को नमस्कार करता है, वह उस के बुरे कामों में साझी होता है।। (2यूह 1:10,11) 17 . भरोसेमन्द और विश्वासयोग्य हो। उसके पति के मन में उसके प्रति विश्वास है। (नीति 31:10) कलीसिया में विश्वासियों के लिए निर्देश 1. प्रार्थना में, शिक्षा में, और संगति में लगे रहे (प्रेरित 2:42; कुलु 4:12, प्रेरित 12:5, याकूब 5:15) 2. एक दूसरे से प्रेम रखें (रोम 12:10) 3. एक दूसरे का आदर करें (रोम 12:10) 4. एक दूसरे की मदद और सहायता करें (रोम 12:13; 1कुरु 16:1; गल 6:6) 5. पहनुाई और अतिथि सत्कार करने वाले हो (रोम 12:13; 1तिम 3:2) 6. एक दूसरे के दुखों को जानने वाले हो (रोम 12:15; गल 6:5; रोम 15:1-7) 7. नम्र हो (रोम 12:6) 8. भलाई करें (रोम 12:17) 9. उन्नति के वचन बालें (इफि 4:29) 10. एक दूसरे को संभालें (गल 6:1,2) 11. वफादार रहें (रोम 12:17; इफि 4:15, 25) 12. वचन द्वारा समझाने के लिए तत्पर रहें (2तिम 4:2) 13. एक दूसरे के आधीन रहें (1पत 5:5) 14. एक दूसरे के सहने वाले बनें (कुलु 3:13) 15. एक दूसरे को क्षमा करने वाले बनें (कुलु 3:13) संसार में नौकरी करने वालों के लिए 1. अपने मालिक का आदर करें (1तिम 6:1,2) 2. अपने मालिक के प्रति आज्ञाकारी रहें (इफि 6:5, 6-8; कुलु 3:23-25) जो लोग शरीर के अनुसार तुम्हारे स्वामी हैं, अपने मन की सीधाई से डरते, और कांपते हुए, जैसे मसीह की, वैसे ही उन की भी आज्ञा मानो। और मनुष्यों को प्रसन्न करनेवालों की नाई दिखाने के लिये सेवा न करो, पर मसीह के दासों की नाई मन से परमेश्वर की इच्छा पर चलो। और उस सेवा को मनुष्यों की नहीं, परन्तु प्रभु की जानकर सुइच्छा से करो। और जो कुछ तुम करते हो, तन मन से करो, यह समझकर कि मनुष्यों के लिये नहीं परन्तु प्रभु के लिये करते हो। -भय के साथ - एक मन से - जैसी की मसीह क आज्ञाकारी है - मनुष्यों को खुश करने के लिए नही - लेकिन मसीह के सेवक होने के नाते - परमेश्वर की इच्छा को पूरा करते हुए अर्थात, यदी कोई बात वचन के विरुद्ध है तो उसे न करें (घूस, रिश्वत, भ्रष्टाचार से दूर रहें) 2. उलटकर जवाब न दें। अपने अपने स्वामी के आधीन रहें, और सब बातों में उन्हें प्रसन्न रखें, और उलटकर जवाब न दें। (तीतुस 2:9) 3. विश्वासयोग्य रहें । चोरी चालाकी न करें; पर सब प्रकार से पूरे विश्वासी निकलें, कि वे सब बातों में हमारे उद्धारकर्ता परमेश्वर के उपदेश की शोभा दें। (तीतुस 2:10) 4. आधीन रहें। हे सेवकों, हर प्रकार के भय के साथ अपने स्वामियों के आधीन रहो, न केवल भलों और नम्रों के, पर कुटिलों के भी। क्योंकि यदि कोई परमेश्वर का विचार करके अन्याय से दुख उठाता हुआ क्लेश सहता है, तो यह सुहावना है। क्योंकि यदि तुम ने अपराध करके घूसे खाए और धीरज धरा, तो उस में क्या बड़ाई की बात है? पर यदि भला काम करके दुख उठाते हो और धीरज धरते हो, तो यह परमेश्वर को भाता है। (1पत 2:18-20) स्वामियों के लिए निर्देश 1. धमकियां न दें। गाली गलौच न करें। हे स्वामियों, तुम भी धमकियां छोड़कर उन के साथ वैसा ही व्यवहार करो, क्योंकि जानते हो, कि उन का और तुम्हारा दानों का स्वामी स्वर्ग में है, और वह किसी का पक्ष नहीं करता।। (इफि 6:9) 2. न्याय और ठीक ठीक व्यवहार करें। उनके मजदूरी या वेतन में अन्याय न करें। उनका शोषण न करें, क्योंकि परमेश्वर कठोर और अन्यायी लोगों को निर्दोष नही छोडेगा। हे स्वामियों, अपने अपने दासों के साथ न्याय और ठीक ठीक व्यवहार करो, यह समझकर कि स्वर्ग में तुम्हारा भी एक स्वामी है।। (कुलु 4:1) एक दूसरे पर अन्धेर न करना, और न एक दूसरे को लूट लेना। और मजदूर की मजदूरी तेरे पास सारी रात बिहान तक न रहने पाएं। (लैव 19:13) संसार के प्रति हमारा सामान्य कर्तव्य 1. संसार में शान्ति के लिए प्रार्थना करें (1तिम 2:1-4) 2. आदर के साथ सबसे व्यवहार करें। सब का आदर करो, भाइयों से प्रेम रखो, परमेश्वर से डरो, राजा का सम्मान करो।। (1पत 2:17) 3. बुराई के बदले किसी से बुराई न करो; जो बातें सब लोगों के निकट भली हैं, उन की चिन्ता किया करो। (रोम 12:17) 4. जहां तक हो सके, तुम अपने भरसक सब मनुष्यों के साथ मेल मिलाप रखो। (रोम 12:18) 5. मसीह की गवाही का जीवन जीयें । ताकि तुम निर्दोष और भोले होकर टेढ़े और हठीले लोगों के बीच परमेश्वर के निष्कलंक सन्तान बने रहो, (जिन के बीच में तुम जीवन का वचन लिए हुए जगत में जलते दीपकों की नाईं दिखाई देते हो)। (फिलि 2:15) 6. इस कारण जो कुछ तुम चाहते हो, कि मनुष्य तुम्हारे साथ करें, तुम भी उन के साथ वैसा ही करो; क्योंकि व्यवस्था और भविष्यद्वक्तओं की शिक्षा यही है।। (मत्ति 7:11) 7. किसी के कर्जदार न हो। इसलिये हर एक का हक्क चुकाया करो, जिस कर चाहिए, उसे कर दो; जिसे महसूल चाहिए, उसे महसूल दो; जिस से डरना चाहिए, उस से डरो; जिस का आदर करना चाहिए उसका आदर करो।। आपस के प्रेम से छोड़ और किसी बात में किसी के कर्जदार न हो; क्योंकि जो दूसरे से प्रेम रखता है, उसी ने व्यवस्था पूरी की है। (रोम 13:7-8) अधिकारियों के प्रति 1. उनका आदर करो (रोम 13:7) 2. उनके आधीन रहो (रोम 13:1, 1पत 2:13-16) 3. उनके लिए प्रार्थना करो (1तिम 2:2-4) |
On Monday, April 30, I started a poll on the following question: Jesus said: "The fields are ripe for harvest... I sent you to reap what you have not worked for. Others have done the hard work, and you have reaped the benefits of their labor." (Jn 4:35,38) DOES IT APPLY 2 NON-JUDEO LANDS AS WELL? They don't need preparation and sowing? Rather, they are as equally ripe for harvest as Judea-Samaria was because of previous labor by somebody (local indigenous religions and prophets!)? A total of 18 votes were cast with the following main results: YES = 9 I believe it wherever the gospel is preached and people respond. = 5 NO = 1 I'M NOT SURE = 0 One Scholar responded saying: "I think God's Spirit is at work with all people all the time through various way, and sundry ways as Hebrews says. hence they are ready for harvest... but the church is too slow to go." A Pastor responded saying: "I do believe that even in the remotest areas, the fields are alread...
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